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विजय बागची

Abstract

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विजय बागची

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रूह में बस जाता है

रूह में बस जाता है

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न ज़माने को ज़माना पसन्द आता है,

ना ही नींद को, सो जाना पसन्द आता है,

वह जो पसन्द आता है, बिन बुलाये आता है,

कभी लबों पर तो कभी रूह में बस जाता हैं।


बात अलग है.....वह खो जाता है,

बस ख़्वाबों में ही, अपना हो पाता है,

क्या ख़बर उसे.. ऐसे में क्या-क्या हो जाता है,

जब इंतिज़ार में कोई शख्स, अक़्स हो जाता है।


फर्क बस इतना-सा है...

किसी को अकेलापन भाता है,

किसी को, किसी का साथ होना रास आता है।


कम्बख़त यह मन.... बस थोड़ी-सी आस जगाता है,

फिर कहीं दूर चला जाता है,

सिर्फ इतना ही नहीं...साथ-साथ अपने,

जो दिया होता है...वह भी साथ ले जाता है।


ऐसे में वक़्त कहां गुज़र पाता है,

जब वह वक़्त-बे'वक़्त याद आता है,

इक शख्स फिर, जमाने से दूर हो जाता है,

वह खामोशियों में मसरूर हो जाता है।


क्या पता फिर कब मुस्कुराता है,

क्या पता कब तस्कीन हाथ लगाता है।


यहां तो...

जो पसन्द आता है बिन बुलाये आता है,

कभी लबों पर तो कभी रूह में बस जाता हैं।


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