ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
मुझे सीखने की ज़िद थी,
वो सिखाती चली गई।।
ज़िन्दगी नए मंज़र
दिखाती चली गई।।
जिस मोड़ पर जाकर,
आना ना मुमकिन था,
हर दफ़ा उस मोड़ पर
लाती चली गई।।
कुदरत के हाथों की,
पुतली है बस इंसान,
रुठी वो जब औकात,
बताती चली गई।।
मुझे दे गया हिदायत,
वो हद में रहने की,
हद उसके अज़ाब की,
मुझे खाती चली गई।।
कितना भी कर लूं मैं,
लगता है कम उसको,
होंठों की हँसी आँखें
चुराती चली गई।।
कभी तो देख ज़िन्दगी,
कितना थक गई हूं मैं,
क्यूं मुझको नए दर्द से,
मिलाती चली गई।।
मैं सीखती ही रह गई,
वो सिखाती चली गई।।