पगडंडियां
पगडंडियां
उन रास्तों पे पहले सी रौनक कहां मिली
जब गांव की पगडंडियां सड़कों से जा मिलीं।
चौपालों पे बैठने की अब फुरसत किसे भला,
बरगद की जगह छोटे से बागीचे ने ले ली।।
मिट्टी से जुड़े लोग शहरों में जा बसे,
खेतों में दौड़ते हुए बच्चे कहां रहे,
हर साल त्योहारों पे अब मेले नहीं लगते,
फीके हुए हैं तीज, दीवाली हो या होली।।
बाहर हैं उजाले, भीतर है अंधकार,
तारों भरा अंबर भी सपनों की हुआ बात ,
ऊंची इमारतों में जुगनू नहीं मिलते,
दीयों की रोशनी चकाचौंध ने खा ली।।।
मुद्दत से राह तकती थीं आंगन में दो आँखें,
हर घड़ी देखने को तरसती थीं वो आँखें,
एक रोज़ वो लौटा तो बन कर के अजनबी,
पुरखों की विरासत भला कब उसने सँभाली।।
बरगद की जगह छोटे से बागीचे ने ले ली,
जब गाँव की पगडंडियां सड़कों से जा मिलीं।।
