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Subhadeep Chattapadhay

Abstract

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Subhadeep Chattapadhay

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सूर्य से उधारी

सूर्य से उधारी

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मुझे सब कुछ शांत करने की कला सीखनी है 

जो संध्या से पूर्व सूरज के किरणों में होती है

मुझे वो सीखनी है, लेनी है

उधारी चली तो ठीक

नहीं तो नगद देने को भी तैयार हूँ।


मुझे बस वो कला सीखनी है

जो सूरज को अपने 

अंतिम क्षणों में न जाने कहाँ से मिल जाती है 

क्योंकि अंत तो यहाँ सब हुए पड़े है।


तो सिर्फ उसे ही ये खुशकिस्मती क्यों ?

जलता तो वो भी है, जलते तो हम भी है 

हाँ, एक फर्क तो है

वो जलता दूसरों के लिए

हम जलते दूसरों से है।।


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