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Subhadeep Chattapadhay

Abstract

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Subhadeep Chattapadhay

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रौशनी

रौशनी

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उस 100 वॉट के बल्ब के

इर्द गिर्द मंडराते कीटों को देख


मैं प्रकृति के उस समय की

कल्पना करने की कोशिश में हूँ

जब ये सारे कीट एक समान थे 

न इनके नाम देने वाला कोई था

न इनके गुणों की तुलना करने वाला

तब ये सब एक रूप ,

इसी भू पे डोलते थे ।


बाद में इनमे भेद आया

इनके शरीर के गठन में विशेषताएं आई 

लाने वाले ये स्वयं थे ,


जो तब रौशनी की खोज में थे

वो आज भी जलकर मर रहे हैं

जो अंधेरे में संयम बांधे थे 

वो आज जुगनू बन रौशनी जला रहे हैं  


प्रकृति के शुरू से ही 

ये यथार्थ सामने मानव का पड़ा है


अंधेरा इंद्रियों को संयम से

इस्तेमाल करना सिखाता है 

असल में मानव को अंधा 

रौशनी बनाता है ।


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