"मेघ"
"मेघ"
घन मन मेघ बरसे आज
देख वसुंधरा चकित आज
रणभूमि से लौट रहे ये बादल
युद्ध काफी बड़ी थी आज
उथल पुथल थी चारों तरफ
न कोई भी यहाँ दिख रहा
जैसे कोई पापी खड़ा
दंड अपना भोग रहा
हर बूँदे ये बारिश की देख
धरती को चूम रहा
हर चुंबन से दोनों की
दर्द माटी का भाप बन उड़ रहा
कोयल भी अब आ चुकी
गीत अपना गा रही
भीगी सी थी वो ज़रा
ठंड से थी वो कांपती
छिपना चाहती थी कहीं
मगर मित्र पेड़ अब खड़ा नही
समर्पित कर खुदको धरती पे
गिरा हुआ है , वही ।
फिर भी कोयल खुश थी बहुत
गीत अपना गा रही
मै सोचता हूँ ये पगली
रो क्यों नहीं रही
लगता उसने सुन लिया ये ,
गीत में अब जवाब दे रही
प्रदुषण छोड़ मित्र ने मेरे आज
मुक्ति है पा लिया
रोता रहता था हर दिन के दुःख से
आज भगवान से ही मिल लिया
मैं भी पूरी भीग चुकी ,
ठंड से हूँ मैं कांपती
शायद बचूँगी मैं भी नहीं
भगवन मुझे बुला रही ।
तुम मनुष्य रहो यही पे
भुगतो अपने दंड सभी
हम तो चले अपने जहान में
मुक्ति मिले तो आना कभी ।