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विजय बागची

Abstract

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विजय बागची

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शुरुआत

शुरुआत

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अभी तो शुरुआत है अंत का दौर नहीं आया,

कौन है जो गमों से लड़ के खुशियाँ नहीं पाया,


अगर मुझमें  है  तो तुममें भी ज़रूर होगा,

जिसे ग़मों से लड़कर ही हारना मंजूर होगा,


जिसे ग़मों को हराकर ताड़ना मंजूर होगा,

डर जाए ग़मों से नहीं मुझमें तो तुममें भी नहीं,


मंज़िलों को भी झुका दे वो हौसला तुमनें पाया।

कोई नहीं ऐसा जिसे खुशियों ने नहीं लुभाया,


कोई नहीं ऐसा जिसे हँसना न रास आया,

यह ग़म  बड़ा  ज़िद्दी  है  आता  ज़ुरूर है,


कहीं ना कहीं घर अपना बनाता ज़ुरूर है,

उस ख़ाली जगह को उम्मीदों से भरना होगा,


ग़म आये जब उसे फिर आने से डरना होगा,

खुशियों की आस में सुकूँ की नींद न सो जाओ,


सजा के ख़्वाहिशें मुक़द्दर की न ऐसे खो जाओ,

वक़्त है जब खुद ही खुशियों को बनाना होगा,


ग़म हो या खुशी सब हँसकर अपनाना होगा।


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