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Kamal Purohit

Abstract

4.5  

Kamal Purohit

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पुरुष

पुरुष

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वो मीलों चलता है,

आँखों में सपने लिए।

सबकी इच्छा पूरी करता है,

कुछ न किया तो अपने लिए।


वो कमाता है तो,

माँ की साड़ी लाता है,

पिता को नए जूते पहनाता है।

बच्चों को खिलौने तो

बीवी को झुमके दिलाता है।


मगर ख़ुद के लिए,

वो एक रुमाल भी

खरीद कर नहीं लाता है।


आखिर क्यों ?

बिना शर्त रखे जिंदगी भर

वो परिवार को

देता ही जाता है,

थोड़ा थोड़ा करके

वो ख़ुद भी सब में

हिस्सा हिस्सा बँट जाता है।


उसके होंठों की हँसीऐसी

प्रथमा का चाँद हो जैसे

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वो रोता भी है ऐसे

बदरी में छुप जाता है

सूरज का तेज जैसे

मर्जी जितनी होती है

उतना जी भर सोता है।


लौह पुरुष बनने की फितरत में

मनोबल दृढ़ कर लेता है

उतरती चढ़ती हर बाधा

स्वयं सहन कर लेता है।


त्याग सिर्फ नारी ही नहीं

पुरुष भी करता है

घुटता है जीवन पथ में थोड़ा थोड़ा

और साथ रहने की हिम्मत

अपनों को देता है।


पुरुष नारी की पहचान और

नारी होती गरिमा पुरुष की..

द्योतक दोनों का

सम्मलित रूप मे एक होता है।

लेकिन यह शास्वत सत्य है।

पुरुष सा कोई नहीं होता है।


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