कूढ़े वाला आदमी
कूढ़े वाला आदमी
वह आदमी
निराश नहीं है
अपनी जिन्दगी से
जो सड़क के किनारे लगे
कूढ़े को उठाता हुआ
अपनी प्यासी आँखो से
कुछ दूढ़ता हुआ
फिर सड़क पर चलते
हंसते खिलखिलाते
धूलउडाते लोगो को टकटकी
निगाह से देखता
फिर कुछ सोचकर
अपनी नजरें
दुबारा अपने काम पर टिका लेता
शायद ये
सब मेरे लिए नहीं
वह सोचता है
अखिर कमल को हर बार
कचरा क्यों मिलता है
वह आदमी
दौड के उस कूढे को उठाता
जैसे उसे ईश्वर का पसाद मिल गया हो
जैसे तालाब के किनारे
कमल खिल गया हो
फिर सड़क पर लोग नहीं है
प्लास्टिक के थैले नहीं है
आैर चल देता है
दूसरे कूढ़े की और
शायद अपनी किस्मत को कोसते हुए
बस यही है मेरी जिन्दगी।