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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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ऐसा हो तो

ऐसा हो तो

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ऐसा ही हो रहा है

तुम मुझे ढूंढ रहे हो

और मैं तुम्हारे पीछे चल रहा हूँ

न तुम पीछे मुड़ रहे हो

न मैं तुम्हें टोक रहा हूँ

कभी कभी मैं

तुम्हारे सामने आ जाता हूँ

और तुम मुझे ढूंढ रहे होते हो

तुम मुझे जानते,

पहचानते, तो कब का मिल लिए होते

पर तुम कहते तो यही हो कि

मैं तुम्हें ढूंढ रहा हूँ

मेरा हाल भी ठीक ठीक तुम सा है

मुझे इतना तो पता है कि

तुम मुझे ढूंढ रहे हो

पर क्यों, नहीं मालूम

राजा हो रंक हो

दोस्त हो दुश्मन हो

साधु हो या संत हो

मुश्किल और भी है मेरी

तुम हर भूमिका में दिख जाते हो

और मैं तय नहीं कर पाता

असल में तुम क्या हो

चलो हमीं मिलते हैं तुमसे

तुम्हारे हर रूप से

उम्मीद तो है कि तुम

खुद को पहचान लोगे।


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