पता ही नहीं चला
पता ही नहीं चला


कभी खूबसूरती से रचे हुए मायाजाल के कैनवास का हिस्सा थी वो
आज वो पराजित होते लुढ़क गई है उसके नये इन्द्रधनुषी पटल पर अखर रही थी ये पुरानी काया।
यकीन के टीले पर ठहरी थी आज तक,
बेरुख़ी की बौछार में नहाते उसे महसूस हो रहा है उसकी ज़िंदगी से ख़ारिज कर दी गई है,
एक रंग उड़ी तस्वीर की तरह दीवार से उतार दी गई है।
कभी उस कारीगर ने उसकी त्वचा की परत पर असंख्य रंगों से प्यार लिखा था,
आज उधेड़ कर हर रंगों पर एक नया रंग चढ़ा लिया है।
कब धीरे-धीरे दरार बनी और कब दरारो में सिलन ने जगह ले ली पता ही नहीं चला,
वो मग्न थी उसके पोते गये हर रंग को सँवारने में कौन सा रंग रूठ गया पता ही नहीं चला।
कैनवास से फिसलती कब फ़र्श पर कालीन सी बिछ गई पता ही नहीं चला
थी कभी वो भी उस सुंदर कैनवास का हिस्सा जिसकी कामना वो पागलों की तरह करता था।
अब मृत कृति पर नफ़रत के फूल चढ़ते है ना कोई रंग है ना सुगंध है, कोरे धवल कैनवास को तकते ओंधे मुँह पड़ी है
ऐतबार की मारी आज खुद पर शर्मिंदा है।