मेरा चमन
मेरा चमन
महकता है यह चमन ,
चहकता है यह गगन,
फिर भी न जाने क्यों
दहकता है यह मन ।
चिंगारी-सी सुलगती है
देख कर यह हलचल हरदम ,
कभी यहाँ धुआँ उठता है
कभी वहाँ ,
न जाने क्यों सुलगता है यह चमन ।
नफरत की आग
भड़कती रहती है हरदम,
इंसान भूल गया करना नमन ,
रह गया बस उसके अंदर अहम् ।
कहाँ गया वह मेरा वतन
जहाँ झूठे बेर भी किए थे ग्रहण ,
जहाँ अहिंसा से जीता था यह चमन,
जहाँ गीता और कुरान
एक ही छत के नीचे करते थे शयन ।
कहीं खो गया है वह मेरा वतन
अभी मुझे ढूंढना है अपना वह चमन।
आओ कुरेद डाले हम अपने मन
जहाँ बसते हैं नफरत के आँगन ।
आओ वह जड़े ही काट दे हम
जो फैलाती हैं दहशत के भ्रम
और करती हैं
इंसान को इंसान से जुदा हरदम ।
आओ खाएं यह शपथ आज हम
मिटायेंगे आतंक हर हाल में हम ।