जीवन के बाद..!
जीवन के बाद..!
कल वो आकर पूछने लगी
भूल गयी ना उस खत को...!
अचानक से...
मेरी तंद्रा टूटी सोचने लगी
यह ख़्वाब था
या फिर,..
जो भी हो
मैं कैसे भूल सकती हूँ उस खत को...।
जो मसुमियत और दर्द से भरा है
कितना दर्द था...
उसकी आँखों में/
उसकी बातों मे...,
कौन समझाता उसको
यह जो बिन नाम
पता का खत है ना...
वह उसकी माँ तक
नहीं पहुँच पायेगा
वहाँ पर उसका
प्रवेश भी वर्जित है...!
कौन बतात
उस मासूम को
जहाँ उसकी माँ है
वहाँ से कैसे
कोई आ सकता है...?
वक़्त के साथ वह मासूम
बड़ी तो हो होगी
फिर भी मन के किसी कोने में
वह मासूम सी नन्ही परी
जीवित होगी और
सिसकती होगी अपने माँ के लिए..
कौन समझाये उसे
जीवन के बाद का जीवन है वहाँ
जहाँ है उसकी माँ
इस जहां से बिल्कुल अलग..!
ओह.. !
वो ख़त कुछ यूँ था कि...
कल मैंने माँ को
एक खत लिखा
बिना नाम और पता के,
पहुँच तो जायेगा ना...?
उसकी अंतिम पंक्तियों में
लिखा है,
माँ..!
पापा कहते हैं तुम अपने घर गई हो,
वहाँ तुमको कौन देखता है माँ..!
मुझे भी तुम्हारे पास जाना चाहिए
तुम अपने नये घर में
मुझको कब बुला रही हो...?
कब मेरा गृह प्रवेश करवा रही हो...?
कोई अच्छा सा मुहूर्त देखकर
मुझको भी अपने पास बुला लो ना..!
अब अकेले मन नहीं लगता यहाँ
तुम भी तो अकेली होगी ना...?
मैं तुमसे कुछ नहीं कहूँगी
तुम्हारी सेवा भी खूब करूँगी...।
बस मुझे जल्दी से अपने पास बुला लो..!
मेरा भी गृह प्रवेश करवा लो ना..?