'पतझड़ पत्ते '
'पतझड़ पत्ते '
पतझड़ को देखा है मैंने
रास्तों पर,
अंधेरों की गोद में
अपना सिर झुकाते हुए
अपनी नर्म आँखों से
कविताएँ सुनाते हुए
कहते है,
माना कि बेहतरीन नहीं रहे अब
किसी के लिए रंगीन नहीं रहे अब
लेकिन इतने भी संगीन नहीं की
ज़िंदगी के लिए कुछ भी नहीं रहे अब।
लोग अपनी मोहब्बत की
दास्तान लिखते थे
हमारे शरीर पर,
जिसमें फना हैं
कुछ जज़्बात के समंदर
अब तो उस बूंदों के क़ाबिल भी नहीं रहें हम।
पल पल मन तड़पता हैं हमारा
फड़फड़ाता हैं ये दिल बेचारा
क्या, इन साँस लेने के वजूद को
मिटा भी नहीं सकते हम ?
