1984 का वो मेरा गाँव
1984 का वो मेरा गाँव
गाँव की गलियों से जब जब गुजरा हूँ मैं
पथ की बेरियों को उकेरा है मैंने
टीले से बिछड़े रास्ते को देखा है मैंने
जंग करती वो कुदाल फावड़े को देखा है मैंने
1984 का वो मेरा गाँव
देख उसकी विभीषिका को घबड़ा गया हूँ मैं
गंडक का वो किनारा
और डूबता साहिल को कैसे भूलूँ मैं
मछलियों से की गयी गुफ्तगू
और डूबता सांझ को कैसे भूलूँ मैं
सींचती जिसकी धारा पानी को
बिछुड़े खेतों से बहते फसलों को कैसे भूलूँ मैं
आवाजाही वाली वो पगडण्डी टूट गए
रिसतें दरारों से वो दीवार टूट गए
सडकों पर पनाह मांगती वो ऑंखें
मदद को गुहार लगाती वो ऑंखें
मदन का मचान बह गए
चाचा के मकान बह गए
आँखों में बरसतें उस बाढ़ को कैसे भूलूँ मैं...
नाव से टूटी उनकी लकड़ियां
उनके हाथ की रेखाएं आज भी बतलाती है
दादाजी कहानियों में अक्सर
1984 की विभीषिका सुनाया करते थे
गाँव से बिछड़े उस सागीर को कैसे भूलूँ मैं..
उन छलकते मोतियों को कैसे भूलूँ मैं..
बताओं अपना गाँव को कैसे भूलूँ मैं..
