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Gaurav Kumar

Tragedy

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Gaurav Kumar

Tragedy

1984 का वो मेरा गाँव

1984 का वो मेरा गाँव

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गाँव की गलियों से जब जब गुजरा हूँ मैं 

पथ की बेरियों को उकेरा है मैंने 

टीले से बिछड़े रास्ते को देखा है मैंने 

जंग करती वो कुदाल फावड़े को देखा है मैंने 

 1984 का वो मेरा गाँव

 देख उसकी विभीषिका को घबड़ा गया हूँ मैं 


गंडक का वो किनारा 

और डूबता साहिल को कैसे भूलूँ मैं

मछलियों से की गयी गुफ्तगू 

और डूबता सांझ को कैसे भूलूँ मैं 

सींचती जिसकी धारा पानी को 

बिछुड़े खेतों से बहते फसलों को कैसे भूलूँ मैं 


आवाजाही वाली वो पगडण्डी टूट गए 

रिसतें दरारों से वो दीवार टूट गए 

सडकों पर पनाह मांगती वो ऑंखें 

मदद को गुहार लगाती वो ऑंखें 

मदन का मचान बह गए 

चाचा के मकान बह गए 

आँखों में बरसतें उस बाढ़ को कैसे भूलूँ मैं...


नाव से टूटी उनकी लकड़ियां 

उनके हाथ की रेखाएं आज भी बतलाती है 

दादाजी कहानियों में अक्सर 

1984 की विभीषिका सुनाया करते थे

गाँव से बिछड़े उस सागीर को कैसे भूलूँ मैं..

उन छलकते मोतियों को कैसे भूलूँ मैं..

बताओं अपना गाँव को कैसे भूलूँ मैं..



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