कच्ची दीवारें
कच्ची दीवारें
ढह रही भरोसे की कच्ची दीवारें,
क्यूँ कि बुनियाद ही शक पर बनी थी।
धोखे से भरे थे ईंट मिट्टी के गारे,
विश्वास पर परत धूल की जमी थी।
भरोसा, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति,
इन सबके ही मायने बदल गए।
पहले जिन्दगी अलग हुआ करती थी,
अब तो जिन्दगी के कायदे बदल गए।
नफ़रत ने फैला लिया अपना दामन,
अपनापन भुल गए हमारे अपने।
रिश्तों की कच्ची दीवारें ढह गई,
बिखर गए जिन्दगी के सारे सपने।
जाने कब कौन सा आया सैलाब,
हर रिश्ता ही आज दम तोड़ गया।
टूट गई रिश्तों की कच्ची दीवारें,
मिट गई आँखों से शर्म और हया।
मिट गया जिन्दगी का प्रकाश,
अंधेरा घनघोर हुआ दूर दूर तक।
जाने कब की अलग हो गई राहें,
अता पता नहीं मंजिल का दूर तलक।
पहले जन्म जन्मांतर का होता था रिश्ता,
अब चंद महीनों में हो जाते हैं तलाक।
देखता हूँ जब आज की पीढ़ी की बेअदबी,
मन का विश्वास तब हो जाता है ख़ाक।
भरोसे का गारा फिर से बनाना होगा,
हया का जामा भी फिर पहनाना होगा।
जिन्दगी का सलीका भी सिखाना होगा,
रिश्तों को सही मार्ग अब अपनाना होगा।
वरना एक दीवार भी नहीं बचेगी,
आगे बढ़ने को राह भी न मिलेगी।
सुबह की पहली किरण भी न दिखेगी,
दीवारें कभी भी पक्की न हो सकेगी।