अजन्मा
अजन्मा
मेरे मन में तुम्हारी,
इक प्यारी मूरत थी।
तुम्हारी आहट ही,
बहुत खूबसूरत थी।।
तुम चेहरा बने तो नहीं,
पर तुमको देखा मैंने हजारों बार।
तुम आए नहीं बांहों में मेरी,
पर गले लगाया तुम्हें मैंने कई बार।।
तुम शायद नाराज थे मुझसे,
अरे कह देते,
आते तो
चाहें दूर रह लेते।
पर छोड़ो अब
तुम मेरे चिंतन में
कांच की इक लकीर बन रहोगे सदा
हंस लूंगा
रो लूंगा
याद करके
ये पल
यदा कदा
हे ईश्वर
सब स्वीकार
तुम न्याय करते रहना
बैठ कर
उस पार।।