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Akanksha Gupta (Vedantika)

Drama

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Akanksha Gupta (Vedantika)

Drama

प्रकृति का संहार

प्रकृति का संहार

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उड़ान भरती हवा के संग उड़ते पंछी,

भूल गए है अपना घर अपनी मंजिल।


घर जो भूलें है वो तो धुयें के गुबार में,

पेड़ो की जहरीली टहनियों पर अब बसेरा है।


प्यास लगी हुई है लेकिन जल सूख चुका है,

अब अपने ही रक्त से कंठ तृप्त हो रहा है।


गाँव की वो सँकरी गलियाँ अब शहरों की सड़क,

बनी है परिभाषा तरक्की की उलझन भरी।


हाथों के अंदर ही सिमट गई हैं जिंदगी कुछ इस तरह,

लगने लगा दुःख में तैरता हुआ सारा संसार।


खेत नहीं खलिहान नहीं गाँव की चौपाल नहीं,

कंक्रीट के बने हुए महलों के बगीचे उगे हुए।


भाग्य उलझा प्लास्टिक के जंगलों मे,

राह बनी काँटो के साथ आसान।


समझना जरूरी है कीमत प्रकृति की,

वक्त गुजर रहा है मुट्ठी में बंद रेत की तरह।।


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