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Dr. Nisha Mathur

Romance

5.0  

Dr. Nisha Mathur

Romance

प्राण निमंत्रण

प्राण निमंत्रण

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चाँद तू कुछ और निखर, अपनी चंद्रिका पे इनायत कर,

उर बीच पनार के छालों को, हाथों पे सजाकर रक्खा है।


प्राण का फागुन खिल रहा, मेरी सांसों में धुआँ धुआँ सा,

प्रीत की बासंती हवाओं को, खिड़कियों पे बुला रक्खा है।


गुनकी महकी यादें संजोयी है, किताबों में अब मुरझाने को

गुलाब तू भी हँस के देख ले, पत्ता पत्ता बिखरा रक्खा है।


अरे पावस के पहले बादल ,उमड़ घुमड़ घिर के बरस ज़रा

अंतस की तृष्णा को, बारिश की बेखुदी ने तरसा रक्खा है।


बर्फ के धुऐं पे बना रही हूं हौले से, आशियाँ कुछ ख्वाबों का

मेरे ही शे के सदके जाऊँ, मैने एक शहर भी बसा रक्खा है।


तेरे कद

मों में हो तो जाऊँ निछावर इन गुलाबी फूलों सी ,

खाक में मिलके भी तेरे लिये, खुशबू को बचा कर रक्खा है।

 

घटाओं पे हया की बंदिश है, झट से चाक कलेजा कर देंगी,

इन जुल्फों की शोखी को, हौले से भी तो संभाले रक्खा है।


झोंका हवाओं का उन्मन नाच रहा, लेकर सुधियां साजन की,

घूंघट में अपने चुप के से वो आधा चाँद छुपा के रक्खा है।


मैं, लतर सलोनी क्यूँ नहीं भीगूं, मधुबन के तरूवर से मिलकर

चाँद चांदनी की मदिरा में इस निशा को भरमा के रक्खा है।


अब चंचल मंदाकिनी उतर रही है चुरा के मेरी चितवन को,

प्रियवर! मिलन यामिनी का तुम्हें प्राण निमंत्रण दे रक्खा है।



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