पर बिछाती पंछी
पर बिछाती पंछी
अग्निपंखों से उड रहा है मोह
आत्मबोधोतल की जीवतंतु में
ग्रीष्मातपों की कंचनकणों में
आनंदनृत्यमय पुण्यपादों में।।
कल कल निनादमय तरलित नदी में
रजनियों में दमकती प्राण रेणु में।
वनगंधी फूलों की सिंदूर लेख में
स्वच्छ गंधप्रवाही स्निग्ध हस्त में।।
कोई विशुद्ध पंखी ढोती ओस से
प्रेय गंधर्व संगीत वर्षा बरस
रात्रि . माथे पर पहनती सुमुकुट के
तीरदेशों में भी उड रहा मोहजाल।।
अंचल झुलाकर सश्रृंगार लास्य से
सौ मोहजाल पर बिछाती है सब कहीं
हवा हो किसी भी ऋतु प्रवर्तन में
उग्र तेजस्वी विलासी है मोहजाल।।
चेतनाएँ सब समृद्धांश खोजते
जब कभी सौरभ्य सब कहीं फैलते
खग नभ तरंगों में तैरते वक्त भी
सारी दिशा भर है मोहजाल उड रही।
बाल संकल्पों की निर्मल चमन में
कौमार सोपान चित्र वर्णांक में
नित्य महातीक्ष्ण यौवन हवा में
फिर शुद्ध संध्या के मौन नर्तन में
मर्त्य छलाचल श्रृग में सत्य हो
दृष्टव्य हीन प्रदेश में घूमकर
प्रतियाम सागर तरंगों की भाँति
पर बिछाकर जा रही है यह पंछी।
सागर तलस्थ की चित्र सारी में
सूर्यतेजोमय सुवर्ण पंखो से
जीव नलिकाओं की शक्तिता लादकर
जलधि तट पाने वह खग उड़ रहा है।।
