पत्थर
पत्थर
पता नहीं ये जो कुछ भी हुआ, वो क्यों हुआ ?
पता नहीं क्यों मैं ऐसा होने से नहीं रोक पाया ?
मैं जानता था कि ये सब गलत है।
लेकिन फिर भी मैं कुछ नहीं कर पाया।
आखिर मैं इतना कमजोर क्यों पड़ गया ?
मुझमें इतनी बेबसी कैसे आ गयी ?
क्यों मेरे दिल ने मुझे लाचार बना दिया ?
क्यों इतनी भावनाएं हैं इस दिल में ?
क्यों मैंने अपने दिमाग की बात नहीं मानी ?
क्यों मैं अपनी बात पूरी हिम्मत से कह ना सका ?
क्यों मैं अपनी बात मनवाने की जिद पे ना अड़ा ?
क्यों मैं रोया उनके सामने जो पत्थर दिल थे ?
रोकर किसी ने कोई जंग नहीं जीती कभी
क्यों मेरी समझ में ये बात नहीं आयी ?
मेरी भावनाओं की सबने हॅंसी उड़ायी
मेरे ऑंसुओं को मेरी कमजोरी समझा।
सफलता क्यों मनुष्य को राक्षस बना देती है ?
अपना ही क्यों सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है ?
आखिर ऐसे जीवन से लाभ क्या है ?
क्यों ये संसार और समाज ऐसा ही है ?
क्यों इन सवालों के जवाब ढूँढ रहा हॅूं मैं ?
और किसे जवाब दूँ, खुद को या औरों को ?
सोचता हॅूं कि काश मैं एक बेजान पत्थर होता।
ना ये जिंदगी होती और ना इतनी तकलीफ होती।