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Bhawna Vishal

Tragedy

4.8  

Bhawna Vishal

Tragedy

पीड़ा

पीड़ा

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पीड़ा चरम पर आ गई है

कालिख चहुंदिश छा गई है


स्वर्गों के सिंहासन ढह गये हैं

सब अश्रु लहू संग बह गये हैं


निज गर्व सारा धुल गया है

नस में हलाहल घुल गया है


वेदना चेतना खो रही है

देवी दया की,मुंह ढांपे रो रही है


क्या अब भी प्रतीक्षा बाकी रही है?

क्या जो हुआ, काफी नहीं है?


फिर इक चीख दबना देखते हैं

निर्लज्ज ,इसपे भी अपनी रोटी सेंकते हैं


धिक्कारती है कोख तुमको

क्या इसीलिए जन्मा था तुमको


ओ मांओं, बहनों वालो आओ

इस पीड़ का मरहम बताओ


वो जो उनके हत्थे चढ गई थी

माना तुम्हारी बेटी नहीं थी


पर क्या तय है हर बार वो परायी ही होगी

आश्वस्त हो तुम,तुम्हारी जाई न होगी ?


उसका यूं पल पल तड़पना तो देखो

उसमें तुम बिटिया अपनी जो देखो


फिर सोचो चूके हम कहां पे ?

किस राह हो आए यहां पे ?


और सोचो,क्या बिटिया कोई भी बचेगी ?

ये हवस किस पर जा के रुकेगी


बिटियादिवस,महिलादिवस,अम्मादिवस,बहनादिवस

छोड़ो ये सारी दिवसों वाली सरकस


तुम दो भरोसा,जो दे सको तो

कि होकर निडर बस जी सके वो


हर ठांव सुरक्षित पाये वो खुद को

जबरन कोई छुए न उसको


वो मांगती कुछ तुमसे नहीं है

जीना मगर क्या उसका हक नहीं है ?


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