फरियाद ले द्वार पर सागर आया
फरियाद ले द्वार पर सागर आया
फरियाद ले द्वार पर सागर आया
इन दो नयनों से अब तो नीर बहा
तेरे दुःख-संताप से जलधि सूख गया
बस हुआ, अब बस हुआ।
अभी कहाँ बस हुआ!
बरसो प्यार में सोई नहीं
उल्लास हर समय साथ रहा,
दिन-रात देखा नहीं
अँधेरी रात में
जब कुत्ते थे भौंकते,
चौकीदार की लाठी
ठक-ठक थी करती,
उसे तलब उठती
ग्रीन-टी या गर्म दूध की
तो मुस्कान के साथ दी
और प्यार की चीनी भी मिला दी
पर उसे वो समझोता लगा।
अभी कहाँ बस हुआ !
उसकी टाई से जूते
तक का ध्यान,
उसकी वर्जिश से घूमने
तक का ध्यान,
उसकी खांसी-जुकाम,
बुखार का ध्यान,
उसके खाने-पीने,
सोने-जागने का ध्यान,
उसके अच्छे-बुरे मूड,
हंसी-खुशी का ध्यान,
प्यार में पड़ी बावरी,
दिलों जान से रखती ध्यान,
पर उसे ये ध्यान-मग्न प्यार,
पाखण्ड-सा लगा।
अभी कहाँ बस हुआ!
वो उसके असेसमेंट
वो मेरी प्रार्थनाएँ,
वो उसकी कान्फ्रेंस
वो मेरे जाप,
वो उसकी छोटी-बड़ी सफलता
वो मेरा प्रसाद चढ़ाना,
एक प्रेममय संगिनी की पूजा-अर्चना
उसे रावण का हवन-सा लगा।
अभी कहाँ बस हुआ!
वो सुता को माँ को सोंप
नंगे पैर ही कैंपस पहुँचना
राधा को देखा नहीं
पर राधा-सा जीना।
एक मधुमय बात के लिए
मीलों पैदल चलना
लाडो को उठाए
दूरभाष पर बातें करना।
बिल ज्यादा होने पर
क्या नहीं सुनना !
मेरे लिए प्यार था वो सब
उसके लिए स्वार्थ था वो सब।
अभी कहाँ बस हुआ !
घर के हर मंत्रालय को सम्भाला।
पहले अपने खर्च कम कर,
फिर आत्मजाओं के
तब हर महा बजट बनाया।
फिर भी सुना
तेरे बाप का पैसा नहीं,
बिगड़े बाप की बिगड़ी बेटी।
अभी कहाँ बस हुआ!
देश की सेवा में कार्यरत
कभी एक छुट्टी को कहा नहीं।
प्रसव की पीड़ा सही
अकेली चिकित्सालय में रही
तब भी उसने छुट्टी ली नहीं।
मैं गर्वित हुई
कर्म के प्रति निष्ठा देख,
मैं भी अपनी घर-गृहस्थी
को समर्पित हुई
पर उसे वो भी भ्रम लगा।
अभी कहाँ बस हुआ!
उसके लिए दुनिया को ठुकराया,
जनक-जननी से नाता तोड़ा।
उसे ही अपना संसार माना
उसने ये सब बेईमानी माना।
अपना अस्तित्व मिटा दिया
हर दिन के छत्तीस घंटे
उसे समर्पित कर दिए।
अपनी आत्मजाओं से पहले
उसकी अनंत इच्छाओं को पूर्ण किया।
बस ! लव बाइट न दिया
मैं शिवा पुत्री
नागिन का रूप न धरा
इसलिए
मेरे हर प्रेममय प्रसंग को
वंचना का नाम दिया।
अभी कहाँ बस हुआ!
फिर जीवन के उस मोड़ पर
जहाँ बस विश्वास ही विश्वास होता
ईश्वर-सा अनंत विश्वास
उसे ही तोड़ दिया।
तोड़ कर मुकर गया।
फिर जो दोहरा रूप दिखाया
उसने तो मंदिर-सा घर-संसार,
पाक-सा प्यार, अटूट विश्वास
सब खंडित कर दिया।
जिसने मेरे आँसुओं को
जलाकर मुझ में रोपित कर दिया।
राधा ,रुक्मणी, मीरा के प्रेममय
प्रसंगों को दफन कर दिया।
सच्चा प्यार जब दर्द से करहाता
तो प्रकृति भी करहा उठती
यह वजह संताप की।
सागर तुम्हें तुम्हारे
आँसू हूँ लौटाती।
अपनी सुताओं के साथ
एक नई यात्रा पर हूँ निकलती।