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फिर भी मैं पराई हूँ

फिर भी मैं पराई हूँ

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शुरू जो हुआ 

ज़िन्दगी का दौर 

तो मोहब्बत अपनी 

इबादत बन गयी।


मरने से पेहले सोचा 

खुद से इश्क कर लूँ 

तो दुनिया ये सारी 

बगावत कर गयी।


रिश्ते तो बहुत मिले 

कोई अपना उनमें न हुआ 

जिसे मैनें अपना माना 

उसको ही धोखा दे बैठी।


हर पल हर क्षण 

रोती रही, इसी गम में 

फिर भी मैं पराई हूँ 

जाऊँ चाहे जिस गली।


ये इत्तफाक तो नहीं 

साजिश है मेरे किस्मत की 

वो मेरा हुआ ही था 

कि मुझसे गुनाह हो गया।


अब कुछ भी नहीं रहा मेरा 

किस मुहँ से मांगू मैं माफी 

कुछ सांस उधार की सही 

दे दें मुझे तू ज़िन्दगी।


एक आशा है प्रेम की 

छोटा सा आशियां मैं बसाऊं 

फूल बनकर घर के गुलशन को 

ज़र्रा-ज़र्रा महकाऊँ।


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