दस्तखत
दस्तखत
बदनामी भी खुशनुमा है
बेइज्जती भी खुशनुमा
होकर एक बार तार-तार
शर्मिन्दा वो खुद पर है
अच्छा ही हुआ
जो ये चर्चा आम हो गया
तेरी मेरी मोहब्बत की
हकिकत का खुलासा
अब तो सरेआम हो गया
डर न रहा ज़माने का
न खौफ रह गया बाबुल का
चलो खुलकर जीना तो
परवरद्दिगार को कुबूल हुआ
तो क्या हुआ
जो निकाहनामे पे दस्तखत
अभी तक हमारे न हो पाये
दिल के दरवाजे पर तो
तरवीह तुम्हारे नाम की
सुबह शाम पढ़ती हूँ
मेरे हर अल्फाज़ में
दुआओं में शामिल हो
और खामोशियों में
सांसों की तरह फना हो
हौसला भी तुम हो
ज़िन्दगी के रास्तों पर
हार गयी सब कुछ
पर फिर भी जीतने की उम्मीद
अभी भी ज़िन्दा है।