आज की बेटी
आज की बेटी
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सहेली सी बेटी, सर्दियों की धूप की अठखेली सी बेटी
ईश्वर की सदा, दर्द में दवा सी बेटी
स्वप्निल आँखों में, झिलमिल सपने सजाती बेटी
भावनाओं को बुन-बुन घर-संसार रचाती बेटी।
पत्तियों पर ओस सी, निश्छल, निर्दोष सी
बसंत का श्रृंगार, रिमझिम फुहार सी बेटी
शंख सा उद्घोष, मनु सा जोश बेटी
चांदनी की शीतलता , मंद-मंद बयार सी बेटी।
परम्पराओं -मर्यादा को निभाने वाली डोर
घर-परिवार की ओट सी बेटी
दुर्जनों पर दुर्गा-काली सी
दिव्यता में सुबह की लाली सी बेटी।
कभी कहती है बेटी ,न बाँधो मुझे झूठे बंधनों में
उड़ने दो मुझे भी, विस्तृत गगन में
अपने पंख पसारे , साँझ -सकारे
ढूढती है अपने भी, ज़मीं-आसमां बेटी।
कहती है 'अनुपमा' नहीं है, बेटी की उपमा
हर बेटी है कुछ ख़ास, कर लीजिये इसका अहसास
न हो उसका अपमान, न हो वह व्यर्थ बदनाम
न रौंदी जाये, व्यर्थ रूढ़ियों का बहाना बनाकर।
न मारी जाये, अजन्मी कोखों में आकर
न कुम्हलायें, उसकी आकांछायें, आशाएं
मान्यता चाहें कुछ , उसकी अपनी भी परिभाषाएं
बहने दो उसे भी निर्बाध
होने दो अपने ख़्यालों से आबाद।
वह भी हिस्सा है संसार का
मिलना चाहिए उसे भी अपना हिस्सा
छोड़नी होगी उसके प्रति हिराकत, द्धेष और हिंसा
बेटी है घर परिवार की हरियाली
इंद्रधनुषी रंग हमारे जीवन में उतारने वाली।
फिर स्वयं क्यों रहे उसका दामन ख़ाली
हर पथ पर दें उसे, साथ और सुरक्षा
फिर क्यों न होगा पथ प्रशस्त
समाज, देश के विकास का।
क्यों न धरा की तरह बेटी भी
फूलों की तरह खिले, कल-कल सी बहे
अपने शब्दों में स्वयं अपनी कथा कहे
जीवन ऊंचाइयों -गहराइयों में स्वयं सिद्धा रहे।