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Devanshu Ruparelia

Tragedy

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Devanshu Ruparelia

Tragedy

पाबंदियाँ

पाबंदियाँ

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समझ नहीं आता मुझे हर बातों पे टोकना सबका 

समय की पाबंदियाँ 

हर रोज़ नए नियमों का आगाज़ 

अंदाज़े बयाँ क्या करूं मैं मेरे हालातों का..... 

बेज़ुबाँ परिंदे के भी अब तो जलन सी होने लगी मुझ को 

क्यों की दिशाएँ तय नहीं करती उड़ान उसकी 

बचपन में भी हक़ नहीं पढ़ाई पर मेरा 

मजदूरी का बोझ उठाये कमज़ोर कंधे मेरे 

आँखों में चुभता है हर नया खिलौना बाजार का मुझे

और बेबसी से कोसता हूँ हाथों की लकीरों को मैं 

मेरे सर पे लगने वाली हर चपत से है परहेज़ मुझे

नहीं चाहिए छोटू का उपनाम मुझे

मेरी भी पहचान हो अपने ही नाम से 

छोटे ही सही पर सपने मेरे भी हो अपने वजूद के 

रद्दी में दबे उपदेश देखे है मैंने बाल दिवस मनाने के 

समाज सेवकों की भीड़ में देखे है दिखावे के चेहरे मैंने 

इस उम्मीद में कचरे के ढेर को टटोलता मैं 

की जैसे कोई चाबी छुपी उजली किस्मत की उसमें 

समय बदलेगा 

बाल मजदूरी हटेगी 

तब मिलेंगे कही.... 

जहां 

तनख्वाह देने वाले हाथ मेरे होगे 

हुक्म देने वाले शब्द मेरे होंगे 

नियम कानून मेरे होगे 

पहचान ऊँची होगी मेरी हैसियत की तरह उस वक़्त 

बेड़ियों दूर 

पाबंदियों से परे 

मजबूत हौसलों की असीमित उड़ानों में 

मिलेंगे कही 

तब छोटू नहीं होगा नाम मेरा 

साहब करके मुझे भी बुलाएगा कोई 

सलामी देने के लिए हाथ उठेंगे किसी के 

भीड़ में मेरी अलग दुनिया बन जाये जब मेरी 

तब 

मेरे वक़्त और मेरे ठिकाने पे मिलेंगे कही। ... 


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