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Devanshu Ruparelia

Abstract

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Devanshu Ruparelia

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कलियुग

कलियुग

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पुरी रात गश्त लगता रहा वह रोटी की तलाश में 

सुबह तलाश खत्म हुई उसकी कूड़े करकट में


काले बाजार की रात को मुगट खुब चमक रहा महगाई का.......

अमीरी की डोर से लहरा रहे पतंग गरीबाई के 


हम को वोट दो के नारो में दब गई आवाज़ सच्चाई की 

हर भूख ने जनम दे दिया भ्रष्ट समाज को.......


कलियुग मेंं द्रौपदी के चीर हरण पे लाचार है कृष्णा भी 

कुरुक्षेत्र मेंं जीत ओर बढ़ चला दुर्योधन है 


मैं हम हमारा मेंं पीछे छूटा विकास का हर नारा 

बेकारी और बढ़ा रही मजदूरों पैरो के छालो को 


पेन्ट की फटी जेबों से मेंरे हालात अब बयाँ नहीं होते 

क्यों की आदत मैंने भी डाल ली है अब हर समझौतो की....


डूबते सूरज की रोशनी मेंं कही उम्मीद बाकी है मेंरी 

की कश्ती बस मिलन को है अपने साहिल से........


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લોગિન

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