STORYMIRROR

Devanshu Ruparelia

Abstract

4  

Devanshu Ruparelia

Abstract

कलियुग

कलियुग

1 min
600

पुरी रात गश्त लगता रहा वह रोटी की तलाश में 

सुबह तलाश खत्म हुई उसकी कूड़े करकट में


काले बाजार की रात को मुगट खुब चमक रहा महगाई का.......

अमीरी की डोर से लहरा रहे पतंग गरीबाई के 


हम को वोट दो के नारो में दब गई आवाज़ सच्चाई की 

हर भूख ने जनम दे दिया भ्रष्ट समाज को.......


कलियुग मेंं द्रौपदी के चीर हरण पे लाचार है कृष्णा भी 

कुरुक्षेत्र मेंं जीत ओर बढ़ चला दुर्योधन है 


मैं हम हमारा मेंं पीछे छूटा विकास का हर नारा 

बेकारी और बढ़ा रही मजदूरों पैरो के छालो को 


पेन्ट की फटी जेबों से मेंरे हालात अब बयाँ नहीं होते 

क्यों की आदत मैंने भी डाल ली है अब हर समझौतो की....


डूबते सूरज की रोशनी मेंं कही उम्मीद बाकी है मेंरी 

की कश्ती बस मिलन को है अपने साहिल से........


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract