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Devanshu Ruparelia

Abstract

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Devanshu Ruparelia

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लॉकडाऊन

लॉकडाऊन

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सुने रास्ते गमगीन चौराहे 

मौन वाणी कोरा आसमान 

इन्सान की इन्सान से अपने ही घर मे दूरी 

और घर की खिड़की से पंछियो की आज़ाद उड़ाने 

लाचार निगाहें तुटे हुए हौसले 

जगदोजहद उम्मीदों की 

पैदल सफ़र 

मीलों का फासला 


मजबूर सरकार कोरोना की मार 

मुफ्त भोजन और राशन के लिये लम्बी कतारे 

मास्क के पीछे छिपे हुए चेहरे 

डरे हुए सहमे से चहेरे 

आँखों मे नमी प्राणवायु की कालाबाज़ारी 

अस्पतालों में अंतिम साँस लेता हर बिस्तर 

स्मशान की अग्नि मे भी लम्बा इंतज़ार 

गुरूर अपने पे क्या करे इन्सान जब 


कुदरत अपना साम्रज्य फैलाये 

भूलना चाहु भी तो कैसे भूलू वह मंज़र 

जहा प्रजा हारी अपना सिर झुकाए 

इंतज़ार मुजे उस उजाले का जो छिपा कही काले बादलों के पीछे 

उफ़ान की नदी को थामने इंतज़ार मे किनारा 

अब तो बस ग्रहण के पार सूरज निकलने की देर है 


कोहरे में छिपी धुप निकलने की देर है 

वापस वही कोलाहल लौटने की देर है 

मुझको बस उस आनेवाली कल की जीत मनाने की देर है।


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