नयी मंज़िल
नयी मंज़िल
कुछ ख्वाहिशें भूली हुयी,
ख़्वाब मेरे टूटे हुए
फुर्सत में अब भी जी लेती हूँ उनको,
सपने मेरे रूठे हुए।
मंज़िल नहीं मिली पर
राहें खूबसूरत थीं मैं चलती रही
अकेले चलती तो पा लेती मंज़िल,
हमसफर का हाथ थामे रही।
कुछ मंज़िलें बदलीं,
कुछ सपने भूले
गुमराह सी मैं बस
चलती रही।
कहाँ ले गयी ज़िन्दगी
पता ही न चला
बैठना चाहती थी कुछ देर
पर वक़्त ही न मिला।
फुर्सत के पल तो मैं खोती गयी
ज़िंदगी के तानों-बानों में
मैं रमती गयी
जैसी सोची थी,
ज़िंदगी वैसी न थी
एक दिन बैठ गयी थककर,
आगे बढ़ने की मर्ज़ी न थी।
देखा चारों तरफ़ कुछ कमी नहीं थी
जाने कहाँ जा रही थी मैं,
मंज़िल तो यहीं थी,
मौका था पर ख़ुश होने की
फुर्सत नहीं थी
ख़ुशी तो अब अगली मंज़िल में थी।
फुर्सत के लम्हों को चल दी मैं
फ़िर से नयी मंज़िल की चाह लिये
बंद किये सपनों में।।