नव-वर्ष
नव-वर्ष
नव-वर्ष का आगमन था, मन में उत्साह था,
स्वागत की तैयारी थी...
विचार आया - बुफे पार्टी दी जाये..
पर उन भूखों का ख्याल आ गया,
जिन्हें दो जून की रोटी नसीब ना थी।
मन में उमंग उठी, डाँस पार्टी की जाये..
पर उन अपाहिजों का ख्याल आ गया,
जिन पर भूकंप ने कहर बरपाया था..
सोचा किसी होटल में रात बिताई जाए..
पर उन बेघरों का ख्याल आ गया,
जिनके घर सूनामी की लहरें लील गईं..
दिल ने कहा बन-सँवर यूँ ही घूमा जाए..
पर उन विधवाओं का ख्याल आ गया,
जिनके पति आतंक की भेंट चढ़ गये..
सोचा फैमिली को मुंबई दिखाई जाए..
पर व
ो भी नफरतों का शिकार हो,
बम - ब्लास्ट से सुलग उठी थी..
अंत में सोचा चलो बच्चों के गिफ्ट ले लूँ..
पर उन अनाथ बच्चों का ख्याल आ गया,
जिनके परिजनों ने कर्ज लेकर आत्महत्या की थी..
इतना सब ख्याल आने के बाद,
सारा उत्साह, दूध का उफान हो गया...
सारी तैयारियाँ बेमानी हो गईं,
सारी खुशियाँ पानी का बुलबुला हो गईं..
रह गई तो बस एक...
निशब्दता!
निरर्थकता!
निस्पंदता!
और नीरवता!!!