क्यों
क्यों
हे सीते! क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा,
नारी आज भी इसी बहाने जलाई जा रही है..
हे कैकेयी ! क्यों माँगे तुमने ऐसे वरदान,
नारी आज भी सौतेली कहलाई जा रही है...
हे मंदोदरी ! क्यों ना किया तुमने पति का विरोध
नारी आज भी पति की गलतियाँ सह रही है...
हे उर्मिला ! क्यों नहीं गईं तुम लखन के साथ,
नारी आज भी चुपचाप, एकांतवास झेल रही है...
हे मंथरा ! क्यों दी तूने कैकेयी को गलत सलाह,
नारी आज भी कुटिला कहलाई जा रही है...
हे गाँधारी ! क्यों बाँधी तुमने आँखों में पट्टी,
नारी आज भी पति का अंधविश्वास करती आ रही है...
हे कुंती ! क्यों मान ली तूने देवताओं की बात,
नारी आज भी कुंवारी माँ बनाई जा रही है...
हे द्रौपदी ! क्यों बनी तुम पाँच पाँडवों की रानी,
नारी आज भी, अपने घरों में ही अपनी अस्मत लुटा रही है...
भला कब तक ये खेल चलता रहेगा,
"घर की देवी" कहकर नर, नारी को छलता रहेगा...!!
जागो, जगत-जननी अब तो जागो!!!
मस्तक उठाकर, मन में विश्वास लेकर खड़े हो जाओ...
इन कसौटियों व इन परीक्षाओं से अब ऊपर उठना होगा...
दुशासन का हाथ मरोड़ना होगा, बेवजह ज़ुल्म को नकारना होगा...
नये आकाश, उड़ान हेतु तलाशने होंगे..!!
नये आयाम जीवन के तय करने होंगे..!!
तभी तो हम..
इन अवहेलनाओं के मुँह तोड़ जवाब दे पाएँगे,
और तब जाकर, इस दुनिया में अपना अस्तित्व बचा पायेंगे...
अपना अस्तित्व बचा पाएँगे...