भारत माँ का प्रश्न
भारत माँ का प्रश्न
आज है जग में चारों ओर, भ्रष्टाचार की माया,
ना जाने मानव के मन में, कैसा ये प्रेत है समाया...!!
जहाँ भी देखो नज़र आता है, सिर्फ अंधकार का साया,
क्या यही हमारे पूर्वजों ने, कभी था हमें पाठ पढ़ाया...??
लुट रही है सरे आम, बेटियों की आबरू,
क्यों नहीं होता कोई, लुटेरों से रूबरू...
क्या हो गया है खून, उनका भी पानी,
या बुरा ना देखो, आगे बढ़ो, कह गया है कोई ज्ञानी!!!!
मुँह बाये, राह रोके खड़ी है, बेरोजगारी की ताड़का,
क्यों नहीं आता कोई राम, उसके संहार को...
शिलाखंड की तरह जमकर, बैठ गई है महंगाई,
क्यों नहीं किसी रघुवर ने, आकर उसे मुक्ति दिलाई...
अलगाव व आतंकवाद का, काला नाग उगल रहा है जहर,
क्यों नहीं टूट पड़ता कोई कृष्ण, उस पर बन कर कहर...
धर्मांधता और सांप्रदायिकता की आग, जल रही है चहुँ ओर,
क्यों नहीं आगे बढ़ता उसे बुझाने, कोई नंदकिशोर....
कब तक खेली जाती रहेगी, ये खून की होली,
सिसकते हुए इक दिन, भारत-माता मुझसे बोली...
अश्क पोंछते हुए अपने, मैंने उसको ढाँढस बँधाया,
या खुदा, अब तेरा ही है सहारा, सोचकर अपने मन को भी समझाया...
कुछ दिन और सब्र करो मेरी माता, एक दिन फिर वह समय आयेगा,
जब कोई राम-रहीम, कृष्ण-करीम, तेरे उत्थान को आयेगा...
प्रगति के पंखों पर होकर सवार, तू अंबर की ऊँचाइयाँ नापेगी,
हिमालय सी स्थिरता और सागर सी गहराई, अपने आप में पाएगी....
और एक बार फिर, सारे जग में...
सोने की चिड़िया कहलाएगी...
सोने की चिड़िया कहलाएगी...