निहार रहे ऐसे
निहार रहे ऐसे
एक दूसरे को हैं निहार रहे ऐसे जैसे
लग रहा सदियों की जान पहचान हो।
कुसुम कुसुम तोड़ना हीं भूल बैठी देखो,
गुम हो गया हो जैसे कहीं और ध्यान हो।
निखरी हुई है प्रकृति भी सज धज कर,
पूरा हो रहा है जैसे कोई अरमान हो।
इतना सुरम्य परिवेश नहीं देखा कभी,
फूलों के भी मुखडे़ पर जैसे मुस्कान हो।
स्वर्ण सी आभा रवि किरणें बिखेर रहीं,
पहना धरा ने सत रंगी परिधान हो।
जनकपुरी की पुष्प वाटिका चहक रही,
मचले भी क्यूं न जब ऐसा मेहमान हो।
पलक झपकना भी भूल गये राम सिया,
जैसे किसी बात का न उन्हें कोई ज्ञान हो।
मीठा मीठा दर्द कोई हृदय मे उठ रहा,
ऐसा जैसे किसी ने चलाया प्रेम बाण हो।
नहीं कोई ऐसी अप्रितम जोड़ी श्रृष्टि मे,
धन्य वैदेही धन्य राम जी महान हो।
ऐसा लग रहा जैसे कह रही मात सिया,
तुम्हीं तो हमारे पर ब्रम्ह भगवान हो।
