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Kiran Bala

Tragedy

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Kiran Bala

Tragedy

नदी की व्यथा

नदी की व्यथा

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पिता हिमालय की गोद में पल बढ़

बर्फ के दायरे में लिपट-सिमट कर

संकुचित संकीर्ण पथ पर रेंग कर

बीता सखियों संग बचपन खेलकर


स्वच्छ निर्मल विशुद्ध मैं बनकर

पिया सागर को हृदय से वरकर

बन नई नवेली चली मैं सज-धज

दुर्गम राह पर करती कल-कल


फूल पत्तियों की दुलारी बनकर

शावक पंछियों की प्यारी बनकर

चट्टान शिलाओं पर चढ़ लड़कर

निरंतर पथ पर ही रही मैं अग्रसर


समस्त कर्मो के सब भार मैं लेकर

सब में नव-स्फूर्ति संचार मैं कर कर

निष्काम भाव से रही मैं प्रयासरत

बसाई बस्तियाँ तो उजाड़े कभी घर


हो चुकी अब मैं बद से बदतर

मलिन शुष्क दुर्गंध में सड़ कर

प्लास्टिक अवशेषों से मैं लद कर

सह रही पीड़ा कलुषित बनकर


गर्वित मैं समुद्र के विशाल ह्रदय पर

बिठाता मुझे जो शीर्ष स्तर पर

करता अभिमान मेरे परिश्रम पर

है शर्मसार वो भी मानव तुम पर..



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