न जाने कैसे इतने गिर गए हम?
न जाने कैसे इतने गिर गए हम?
सौदे के दूकान में,
अपने मूल्यों को बेच आए हम।
कभी धर्म का सौदा,
तो फिर कभी पंत का सौदा कर आए हम।
न जाने कब से वहम पाले जी रहें हैं
कि जीवों में सबसे महान हैं हम।
यहाँ तो नीचता की सारे हदें पार कर चुके हैं हम,
न जाने कैसे इतने गिर गए हम ?
कभी संस्कृति का मज़ाक बनाया हमने,
तो फिर कभी उसी संस्कृति को कठपुतली बना औरों को धमकाया हमने।
मर्यादा का त्याग कर,
बेटियों का अपमान सहेजा हमने।
इधर-उधर के कट्टरपन्त को बढ़ावा दिया हमने।
कोई रसूख के नाम पर खेल गया
बेटियों की ज़िन्दगी से,
तो चुप-चाप बैठ मौत का तमाशा देखा हमने।
न जाने कैसे इतने गिर गए हम ?
इससे भली ज़िन्दगी जीना चाहती हैं बेटियाँ
और बेटियों की लड़ाई के मामले में
जुबाँ सी के बैठ गए हम।
नारीवाद का ढिंढोरा पीटने वाले,
कहीं किसी कोने में शायद रिसर्च करने बैठ गए होंगे
या फिर शायद चार दीवारियों के बीच चर्चा करने लगे होंगे।
देखो! एक बेटी के मौत का तमाशा कैसे बनता है?
ज़माना होश गवां के उन रसूखों की मदद करता है।
देखिये! अब इतने गिर चुके हैं हम।
न जाने कैसे इतने गिर गए हम ?
पैसे के रूतबे पर जब न्याय इतराने लगे
तो बेटियों को इन्साफ कौन दिलाएगा?
ज़िन्दगी के इन रसूखदार ठेकेदारों को सजा कौन दिलाएगा ?
अब तो अपाहिज होने का ये नाटक हमें बंद करना होगा
क्योंकि कोई भी इतना पंगु नहीं होता कि
सही और गलत में पहचान न कर पाए,
खासकर इनमें हमारे जैसे दोगले स्वभाव के लोग तो बिल्कुल नहीं आते।
हमें सही और गलत की पहचान होती है
और उनपे बोलना और लिखना भी हम बहुत जानते हैं ,
मगर कुछ करने की बारी आए तो हमारे पसीने छूटने लगते हैं,
क्यों, सही कहा न मैंने ?
क्या आपको पता है:
इतने ही गिर चुके हैं हम।
न जाने कैसे इतने गिर गए हम?