मूल
मूल


कृष्ट हूँ
आकृष्ट नहीं
कृषित तो हूँ
पर भूमि का अंग नहीं
कृत्रिम लगे
पर भेद यही
वक्ष पर सब फुदक रहे
और मर्म का लेश नहीं
लता-मंजरी वैशाख मैं
कार्तिक आषाढ़ नहीं
मठ मस्जिद से वास्ता
दरख़्त में है क्या प्राण भी
अर्थ चाहिए
सार्थ नहीं
अरथी ले जाइएगा
सारथी के क़ाबिल नहीं
सृजनता तो है
सृजनहार में भी
घाट मौत के उतार सके
ये कला सब में तो नहीं।