वेश्यावृत्ति
वेश्यावृत्ति
शायद यहीं मोक्ष मिला ,
मंदिर में अब क्या जाना ?
भीतर में हैं भाव नहीं,
खोखले कनस्तर-सा देह त्यागा !!
हसरतों के इस मंजर में ,
फ़ितरतों का क्या मोल ?
यूँ तो मुड़ जातें हैं ,
नामाकूल भी मेरी गली की ओर !!
बाज़ारूँ हूँ,
बाज़ार तो नहीं;
माना बिकती हूँ,
पर बेचती तो नहीं!!
दलालों के इस जमानें में,
हलालों का क्या मोल ?
यूँ तो बजा जातें है ,
मृतक के परिजन भी ढोल !!
जिस्म ही सही,
शख़्सियत तो नहीं ;
वरना शख़्सियत तो क्या,
कोई शख़्स भी नहीं !!
मालूम होता हैं, बीमारी नहीं ,
ख़ुदा का है झोल;
वरना कहाँ था इन नाचीजों का
लिपटने में भी कोई तोल ।
चूक सकता है फ़क़ीर,
ख़ुदा की दुआ में, पर
दुआ की उसे ज़रूरत क्या ?
जिसने क़ुर्बां किया हो
जिस्म इस दुनिया में ।।