दीपांजलि
दीपांजलि
क्यों बन बैठा तू मूढ़ है
धूल नहीं , तू शूल है
सर्वस्व को पहचान तू
बन बाण-तूणीर-राम तू , बन बाण-तूणीर-राम तू।
दिव्यग्नि जगी जो दीप है
यों भाँप उठी प्रवीण है
वो भस्म पड़ी संकीर्ण है
पीत-प्रीत सी लौ ज्वलन जो, मन-मृदंग-मनमीत है ।
द्वेषाग्नि है भ्रम-दंभ
लिपट रही जो सर्प सी
सन्नाटे से सन रही जो
प्रलोभ-धूली आडम्बर की , वो काम-रति-रेत सी।
चीर कर तेरी छाती को
भेद कर तेरी नाभि को
यूँ नाश करें, विनाश करें
छाँट कर तम-तेरे उस रावण को, स्मरण-कर उस पावन को।
जैवतथ्य अब जान तू
यूँ चेत को ना थाम तू
अवचेत को पहचान तू
बन बाण-तूणीर-राम तू , बन बाण-तूणीर-राम तू।
