आत्मस्वरूप
आत्मस्वरूप
वाणी का मैं व्ययाधार नहीं,
मेरा शब्दों से व्यवहार नहीं।
मैं चित्तधारा की ध्वनि गहन,
जिसका कोई आकार नहीं।
नादातीत! मैं प्रबल चेतना,
ना वाक्-प्रपंच व्यापार बना।
मैं मौन लहर का स्पर्श विमल,
नहीं कभी शृंगार बना।
ना गुंजित दीपक मैं हूँ,
ना पूजित आराध्य बना।
मैं भावस्वरूप अमूर्त गति,
नहीं रसिक संसार बना।
ना जड़ तर्कों से बंधा हुआ,
ना ज्ञान मात्र का सार बना।
मैं आत्मस्वरूप की स्मृति विशुद्ध,
जिसने हर बंधन तार लिया।
