मुझे आज भी नहीं पता
मुझे आज भी नहीं पता
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उसकी सिर्फ़ एक मुस्कान के दीदार को
मुझे बार-बार हार जाना अच्छा लगता है
अकसर उसके दिलनशीं ख्यालों में खोकर
मुझे धीमे धीमे से गुनगुनाना अच्छा लगता है
अपने ग़म वो बाँटता है खुशियों में साथ हँसता है
मुझे आज भी नहीं पता कि वो मेरा क्या लगता है
ख़ामोशियों के दरमियाँ भी हज़ारों वो बातें करता है
फ़लक का माहताब बन के चाँदनी मेरी रातें करता है
बेताबियों के लम्हों में जुबाँ पर वही एक नाम होता है
फ़ासलों में रहकर भी वो हर पल सुबहों शाम होता है
ख़्वाबों की कश्ती में सफ़र वो साथ-साथ करता है
मुझे आज भी नहीं पता कि वो मेरा क्या लगता है।