मनु का पूत
मनु का पूत
हुआ है निष्ठुर मनु का पूत
ध्वंस की है जारी करतूत।
धरा का घायल हुआ शरीर,
गगन में बिंधे आधुनिक तीर।
सृष्टि में उथल-पुथल मच रही,
जगत की बिगड़ रही तस्वीर।
चकरघिन्नी सा है बे-हाल,
चढ़ा सिर पर विकास का भूत
ध्वंस की है जारी करतूत।
वन्य-जीवन का कर संहार,
बढ़ रहा मानव का परिवार।
हो रहे लुप्त पिघल हिम-सिंधु,
धुएँ के नभ तक उठे गुबार।
विश्व पर है विपत्ति आसन्न,
प्रलय होगा मानव-आहूत।
ध्वंस की है जारी करतूत।
हुई पशुता, जड़ता असहाय,
नहीं जीने के बचे उपाय।
यही है क्या मनु रीति-विधान ?
और, मानवता का पर्याय ?
न जाने क्या देगा सन्देश,
दौड़कर मानवता का दूत ?
ध्वंस की है जारी करतूत।
