जलो, जब तक
जलो, जब तक
जलो, जब तक हो जाए प्रभात !
अंधेरे फैले हैं गंभीर अमावस की है काली रात !
जलो, जब तक हो जाए प्रभात !!
दूर-दृष्टि की बात कहां, मैं निकट निहार न पाऊं,
नीरवता चहुंओर भयानक, सोचूं डर-डर जाऊं ।
घूम रहे निर्भीक, अंधेरों के निर्मम व्यवसायी,
जीव अकेला, दीप करे क्या, किसका संबल पाऊं ?
सभी के मुरझा कुम्हला गए अकेलेपन से आकुल गात !
जलो, जब तक हो जाए प्रभात !!
सूख रहे सरिता सर पोखर, सागर में जल जाए,
नग्न हुए गिरि-श्रंग, सिमटते हरित वनों के साए ।
ठांव उजड़ते, उदर न भरते, श्रम का मोल न कोई,
खोते गरिमा गांव, नगर का मादक रूप लुभाए ।
निशा-भर जलते कहां अलाव, कहां अब चौपालों की बात ?
जलो, जब तक होगा यह प्रभात !!
राजमहल मदहोश, उनींदे शासन के गलियारे,
सांठ-गांठ में लीन पहरुए करते हैं बंटवारे ।
हूक हिए में लिए तड़पते पल-पल बोझिल मन के,
देख रहे थे स्वप्न सजीले लोचन व्यर्थ हमारे ।
हमारा धर्म सहज बलिदान, सुफल का अधिकारी अभिजात !
जलो, जब तक हो जाए प्रभात !!