ADITYA MISHRA

Classics

5.0  

ADITYA MISHRA

Classics

मंजिल

मंजिल

1 min
268


ख्वाब देखा था आसमान को छू जाने की

निकल पड़ा था सफर में मंजिल पाने की,

पर अब जो भी देखता हूं ठहर के मंजिल की ओर

धुंधली हुई मंजिल और बिखरे सपने नजर आते हैं।


बैठ जाता है मन निराशा से

और एक ख्याल आता है सफर छोड़ घर लौटने की,

पर ये दिल बार बार कहता है

बुजदिल मत बन, कायम रह तू सफर में।


मंजिल की न सोच, लुत्फ उठा तू सफर का

अपने ख्वाब को बना मकसद जीने का

आज नहीं तो कल वो धुंधली मंजिल ताज बनेगी तेरे सर का

आसमां छूने का हसीन ख्वाब जरूर पूरा होगा।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics