शायर की रूबाई
शायर की रूबाई
शायर की रूबाई होकर भी
ठहराव नहीं उसमें देखा,
वो निर्झर नदी सा बहती थी
मैं कैसे उसे रोक पाता।
वादे कसमों की नींव पर
रिश्ते बङे कम ही चलते हैं,
जब मन में ठान लिया जाना है
फिर कहां देर तक रुकते हैं।
कब तक आंखें मूंदे मैं रहूं
एक दिन तो सच स्वीकारना है,
झूठे प्रेम ने मुझसे
सुख जीवन का सारा छीना है।
चेहरे की हंसी फिर से लौटे
आंगन में रौनक फिर आए,
इतना यदि मुझको पाना है
फिर सच को तो स्वीकारना है।
मन ही मन कुंठित होता रहूं,
आंखों में अंगारे मैं भरूं,
प्रतिशोध भी लूं तो किससे
जिसे प्रेम आज भी करता हूं।
बेहतर है उसके फैसले को
दिल से मैं स्वीकार लूं,
वो अपने जीवन में खुश हो
मैं भी नयी शुरूआत करूं।