मन की पीड़ा
मन की पीड़ा


संवेदनहीन हो चुका है मानव, मर चुकी है बलिदान की भावना,
कामना की पूर्ति करते करते, भूल चुका आदर करुणा।
नग्न नृत्य से सुसज्जित है, आज का यह जमाना,
कामासक्त की वासना में, करते हैं कर्म घिनौना।
आधुनिकता की चादर ओढ़कर, तोड़ चुका है रीति रिवाज सारे पुराने,
भौतिक शांति हेतु विध्वंस हो रही है प्रकृति की सुंदर रचना।
श्रेष्ठता स्थापन करने में, नर नारी कर रहे हैं भिन्न-भिन्न योजना,
नियम कानून भूलकर, धन कमाने ढूंढ रहे हैं नए-नए बहाने।
बिक रहा है शरीर यहां, जैसे बिकते हैं बाजार में खिलौना,
भूख में मरते हैं लोग, पर पालतू कुत्तों को मिलता है मांस मछली का खाना।
गरीब ऋण न चुका पाए तो, मिलता है कारावास या जुर्माना,
करोड़ों खाकर हजम करने वालों के लिए होती है माफी की घोषणा।
नशा सेवन हानिकारक लिखा जाएगा पर बंद नहीं होगा शराब पीना,
जाति धर्म में भेदभाव अनुचित, पर उसी आधार से आरक्षण देना।
गरीबी हटा मजदूर बना, किसी को कुछ नहीं कहना,
सफेद झूठ के आगे, टूट गया है सत्य की आशियाना।