मज़दूर
मज़दूर
कभी सूरज कि गर्मी मे तपता हूँ
कभी आग कि गर्मी मे तपता हूँ
मज़दूर हूँ मैं हर रोज़ एक नयी मौत मरता हूँ।
तुम अमीर बाबू क्या दोगे हमें
सड़क पे चलने से लेकर महंगी इमारतों में
जो तुम गुजर बसर करते हो
वो हमने ही तो दिया है तुम्हें।
हम कड़ी धूप में हर पल मारते है
तुम गाड़ी से निकलने में भी डरते हो
हम रेल की पटरी ओर रन्वे बनाते है
तुम तो सिर्फ़ सुखद यात्रा ही करते हो।
पैसे के दम पे इटलने वालों
तुम क्या जानो जलन पेर के छालो की
तुम तो सौदाग़र हो हर सौदे का
और हम बनाने वाले तुम्हारे ड्रीम प्रोजेक्ट की
तुम मामूली सी चीज हो
हम बहुत नायब हैं
तुम तो सिर्फ़ ज़िंदाबाद हो
और हम इंकलाब हैं।
बेशक तुम्हारे बच्चों की तरह
हमारे बच्चे पढ़ना नही है जानते
लेकिन हमारे बच्चों की तरह
तुम्हारे बच्चे सिमेंट रेती उठाना नही हैं जानते
दोनों के हाथ और साथ से बनता महल है
फिर क्यू तुम्हारे बच्चे बनाते सिर्फ़ घमंड के महल हैं।
मुझे चाह नही बिस्तर तकिया की
मैं ज़मीन पर ही सोता हूँ
भर दिन मेहनत करके पेट अपनो का भरता हूँ
आता है रोना मुझे खुद पर
मुश्किलों से में लड़ता हूँ
क्यू की मेहनत कर आगे बढ़ता हूँ।
मेने ही तो बनाया दुनिया के अजूबे
तुमने तो बस नाम दिया है
महल में रहने वालों तुम क्या जानो
झोपड़ी में रहने का सुख
ना कोई चिंता ना कोई फ़िकर
हमारे क़िस्मत में तो सिर्फ़ मेहनत ही लिखा है
क्यू कि हमारे नाम पे मजबूर मज़दूर लिखा है।
