मिट्टी के दिये
मिट्टी के दिये


दस रुपए के दस दिये है ले लीजिये ना ,
मैंने पलट कर देखा उसकी आँखों में था उम्मीद का गहना…
इससे पहले में कुछ कहती उसने मेरे हाथ में दस दिये का पैकेट थमा दिया,
मैंने भी दस रुपए देकर जरा सा मुस्कुरा दिया…
मिट्टी के दिये हाथ में लेकर मन में आये विचार कईं,
क्या एक दिये की कीमत एक रुपए है सही … ना जाने कितने लोगों की मेहनत इसे बनाने में लगी…
कोई मिट्टी लाता , कोई चाक के पहिये को घुमाकर दिये का आकार देता …
कोई लकड़ी लाकर उसमें दीपक पकाता और कोई बाजार जाकर उसे बेचत
ा…
तब जाकर ये मिट्टी का दिया हमारे पास आता ..
कभी सोचो इन मिट्टी के दीयों से किसी परिवार का पेट पलता है …
सुबह से शाम दिये बेचने पर भी सिर्फ एक वक़्त का खाना मिलता है….
सब कुछ जानते हुए भी हम बन रहे है अनजान
चमक दमक की दुनिया को समझते है अपनी शान
मत भूलों ये अपने वतन की माटी हैं जिसमे से भारतीय होने की खुशबू आती है …
इससे पहले की माटी से उपकरण बनाने की कला विलुप्त हो जाए…
क्यों ना हम सब स्वदेशी अपनाये…।