महफ़िल
महफ़िल
जश्ने महफ़िल सजी है आज,
हफ्तों से था दिल उदास,
यूँ तो कोई गम न था,
पर दिल बाग़ों चमन न था,
जीने को तो जी ही रहे थे,
सूनी - सूनी अँखियाँ तरसती थीं,
नज़र कोई आये, मन हर्षाये,
टक - टकी लगाये निहारते थे,
दरवाज़े की दस्तक को,
दिल के किवाड़ खोल,
मन में ख़ुशी घर कर जाये,
अपनों के इस खेल में,
इंसानों की बलि चढ़ रही,
नाम कोरोना का है,
इंसानियत कहीं मर रही,
गर्भवती हथिनी को,
मुँह में बारूद रख उड़ाया,
हैवानियत का खेल बरपाया,
इंसान और कसाई में,
कुछ तो फर्क करो,
थोड़ा - सा दीनो - ईमान धरों,
सरे - आम गुंडागर्दी का तांडव चल रहा,
इंसान सड़क पर निकलने से डर रहा,
एक तो कोरोना का क़हर,
दूसरा लूट - खसोट से डर रहा,
आडम्बर के इस खेल में,
कठपुतली बन नच रहा,
आर्थिक - मानसिक संतुलन बनाने में,
इंसान पिस रहा,
मन की बातें अपनों से भी,
साझा करने से "शकुन" इंसान डर रहा।