मेरी कलम
मेरी कलम
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अधर भवँर में फँसा हुआ हूँ,
कलम की चाहत से बंध गया हूँ,
कभी परिस्थिति विकट हुई जो,
कलम को थामे मैं चल पड़ा हूँ !
ना कोई मंज़िल मेरी थी पहले,
रस्ता अब भी मिला नही है,
है मुरीद अब इस कलम के लाखों,
लाख़ों में अलग ही चमक रहा हूँ !
अकेले श्रेय लूँ गलत था बेशक,
अभी कोई औकात नही थी,
माँ थी सरिता पिता नाव थे,
पतवार कलम की ले चल पड़ा हूँ !
किसी ने मारा ताना मुझको,
तंज कवि का कसा किसी ने,
लगाम उनकी इस कलम ने पकड़ी,
मुक़द्दर अब उनका मैं लिख रहाँ हूँ !